असली मज़ा घूमने का तो बचपन में आया
करता था,
अब तो बस नाम के लिए ट्रेवल किया करते हैं।
नज़रें जो हमेशा ऊपर रहा करती थी,
वह अब फोन मैं झुकी रहती है।
लम्हे जो पहले सिर्फ नज़रों में कैद
किए जाते थे,
अब उसके साथ सेल्फीयान भी कम पड़ती है।
पहले जो गाड़ियों में बातों के लिए अच्छी कंपनी ढूंढा करते थे,
वह अब चार्जिंग के लिए पॉइंट ढूंढते रहते
हैं।
जो चीज़ें लोग घर पर आराम से कर सकते
हैं,
ना जाने क्यों वो बाहर भी वही करते हैं?
अपने आस पास का मज़ा लोग पहले जैसे क्यों नहीं लेते हैं,
लोग, ना जाने क्यों फोन मैं इतना खोए रहते हैं?
अब समझ आता है की क्यों बुजुर्ग लोग फोन से इतने खफा रहते हैं,
सब कुछ देखा है उन्होंने,
पर साथ होते हुए भी ऐसी खामोशी नहीं देखी कभी।
खुद जब तक ना देखी थी, तब तक ये बात मैंने भी
ना मानी थी,
इस तकनीकी प्रगति ने हमारे हाथों में सब कुछ रख तो दिया,
पर, हाथ थामने वालों से हमें दूर सा कर दिया
है।
Aab toh bas naam ke liye travel kiya krte hai.
Nazzre joh hamesha upar rha karti thi
Aab woh phone main jhuki rehti hai.
Pehele jo traino mai baaton ke liye achchi company dhunda karte the
Wo aab charging ke liye point dhundte rehte hai.
Apne aas pass ka maza log pehele jaise kyu nahi lete hai,
Log, naa jaane kyu phone mai itna khoye rehte hai?
Par, hath thamne walo se hume dooor saa kr diya hai.
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